पिछले 5 साल में ये जो कल्चरल शिफ्ट हुआ है, बनारस इससे अछूता ही रह गया, कैफ़े और कॉफ़ी वाली दुनिया में बनारस अभी भी आपका स्वागत चबूतरा और चाय से ही करता है, बियर और वाइन की जगह ग्लास में भांग वाली ठंडाई ही दिखती है और डेसर्ट का कांसेप्ट कितना भी अच्छा हो, खाने के बाद मीठे पान का मज़ा ही कुछ और है। बनारस की हर कहानी अस्सी से ही शुरू होती है या यूं कह लीजिए कि अस्सी उसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। चौरासी घाटों का है ये शहर, अस्सी का अपना एक स्थान है, दशाश्वमेध आपको अपने में ही मंत्रमुग्ध कर लेता है, राज घाट से आपको अंत समझ आता है मगर ज़िंदगी बस एक ही घाट पर समझ आती है, मणिकर्णिका घाट। यहाँ अंत, शुरुआत और बीच का सब कुछ आँखों के सामने दिखता है। कहते है कि इस घाट पर कभी आग बुझती नहीं, बनारस मोक्ष के लिए भी प्रसिद्ध है, कितनो को मिला है, इसका उत्तर आज तक किसी को नहीं मिला, बस एक आशा के बल पर आदमी मरने चला आता है यहाँ। तोह, ज़िंदगी में जब कहानियों का अंत होने लगे न, तोह उन्हें बनारस ले आइये, अस्सी से उनको घुमाना शुरू करिये, तुलसी घाट, चेत सिंह घाट होते हुए, हरिश्चन्द्र घाट पर उसे थोड़ा जलाइए, आगे चल कर थोड़ा लेमन टी और नाव की सैर करवाइये, शाम को दशाश्वमेध पर गंगा की आरती दिखाइए, चाहे तोह थोड़ा यू-टर्न लेकर बाबा का दर्शन भी करवा दीजिये। वहाँ से आगे बढ़ेंगे तोह कुछ दूर पर कहानी के पैर खुद-ब-खुद रुक जाएँगे, ऐसा जब भी हो बस समझ जाइये की मंज़िल आ गयी है, नाम पूछेंगे लोगों से तोह पता चलेगा कि मणिकर्णिका घाट पहुँच चुके है आप, बस अर्थी सजा दीजियेगा वहाँ और मुख्याग्नि देकर अस्थिया गंगा में विसर्जित कर दीजियेगा। हाँ, रोने का मन करे तोह थोड़ा रो भी लीजियेगा। अब एक सवाल जो मेरी तरह सबके मन में उठ रहा होगा की आगे के घाट तोह रह ही गए?
साहब, सफर यही तक का था, राज घाट तक तोह बस मुक़म्मल हुई कहानिया पहुँचती है, ज्यादा तर को तोह मणिकर्णिका पे जलाना होता है। बस धैर्य रखिये, एक कहानी राज घाट तक भी जाएगी आपके साथ, हाथों में हाथ डाल कर, तब तक के लिए इंतेज़ार करिये।