मुझे हमेशा से ही चीजों का दूसरा हिस्सा ज़्यादा पसंद आता है, पर्दे के पीछे की कहानिया मुझें सामने हो रहे नाटक से ज़्यादा लुभाती है, मेरे सामने रखी हुई कलम का ढक्कन आज भी मुझे कलम से ज़्यादा आकर्षित करता है, थोड़ा सा पीछे जाकर देखने की आदत हैं मेरी। अब ये आदत मेरी कईओं को ख़फ़ा भी करती है, मगर अब सबको खुश भी तोह नहीं किया जा सकता न, नदी की तरह बहेंगे तोह किनारें तोह छूटेंगे ही, मिल तोह बस सागर में सकते है ना? सूरज की पहली किरण से पहले जब आप घाट पे खड़े होकर दूसरी तरफ अपनी आँखें दौड़ाते है तोह वो किनारा एक अलग ही कहानी आपकी आँखों में फुसफुसाता है। वीरान पड़ा वो किनारा कहानियों का एक शहर बसाये हुए है, एक शहर जिसकी नींव रोज़ सुबह रेत पर रखी जाती है और रात होते ही, ये नदी वो सारी कहानियां अपने अंदर समा लेती है। तोह ये कहानियां है क्या? इसका जवाब आज तक किसी को नही मिला। वो नाव देख रहे है पानी में? कहानियों तक पहुँचने का ज़रिया है वो, किसी दिन भूले भटके अपने आप को बनारस में पाए तोह बताइयेगा, साथ चलेंगे वो कहानियां पढ़ने, कुछ अपनी भी लिखेंगे वही बैठ कर, जो पसंद न आये तोह रात का इंतज़ार करेंगे, नदी अपने साथ रेत और कहानी दोनों बहा ले जाएगी।
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